लिखू तुझे पढू तुझे सोचू समझू पा लू तुझे तेरा होके रह लू बस मकसद दूजा कुछ भी नहीं हँस लू जरा रो लू जरा तेरा में हो जाऊ जरा मेरा हूँ में आधा तेरा पूरा मेरा कुछ भी नही शायर बन लू पन्ने भर दू तारीफ कर लूं पीछे तेरे तू जो मांगे शायरियाँ सारी दिखाऊ तुझे कुछ भी नही प्यारमें तेरे अक्सर रह लू प्यार की प्यारी बाते भी कर दू कोई कह दे इज़हार कर दो साहस मेरा कुछ भी नही आदत नही जिंदगी है तू तुझे खोना मौत है मेरी तुझसे छुपाकर रख लू तुझे बोलू तुझे कुछ भी नही साहित्य अकादमी एवं पद्मश्री से सम्मानित डॉ बशीर बद्र की इस गझल से प्रेरित होकर मैंने ये लिखने का प्रयास किया है । ये उनकी गझल है । सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं मांगा ख़ुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं