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अजीब दास्तां है सुनाए न बने, पर बिन कहे भी दिल कैस

अजीब दास्तां है सुनाए न बने,
पर बिन कहे भी दिल कैसे रहें।
बच्चे थे तब सोचते थे कब होंगे हम बड़े,
अब सोचते है क्यों हुए हम बड़े?
न होते बड़े,न होती जिम्मेदारी,
रोजी-रोटी के संघर्षों से सदा होती दूरी।
ना आफिस की होती चिंता,
न बास शब्द कोई जानता?
होती नही हमारी शादी,
न होते बीबी- बच्चे,
नहीं होती रोज किच-किच।
घर में शांति होती।
क्या नजारा होता?
बस अपना ही राज होता।
घर तब हमारा होता।
मां-पापा, भाई-बहन सब साथ होते,
एक-दूसरे संग हिल-मिल दिन बिताते।
मां के हाथ की रोटी का स्वाद होता,
पापा के डांट का बस अख्तियार होता।
पर प्रकृति के नियमों पर जोर चलता कहां है?
होता वही है जो विधना ने लिख दिया है।

***नवीन कुमार पाठक (मनोज)*****

©Kumar Manoj प्रकृति के नियम#
अजीब दास्तां है सुनाए न बने,
पर बिन कहे भी दिल कैसे रहें।
बच्चे थे तब सोचते थे कब होंगे हम बड़े,
अब सोचते है क्यों हुए हम बड़े?
न होते बड़े,न होती जिम्मेदारी,
रोजी-रोटी के संघर्षों से सदा होती दूरी।
ना आफिस की होती चिंता,
न बास शब्द कोई जानता?
होती नही हमारी शादी,
न होते बीबी- बच्चे,
नहीं होती रोज किच-किच।
घर में शांति होती।
क्या नजारा होता?
बस अपना ही राज होता।
घर तब हमारा होता।
मां-पापा, भाई-बहन सब साथ होते,
एक-दूसरे संग हिल-मिल दिन बिताते।
मां के हाथ की रोटी का स्वाद होता,
पापा के डांट का बस अख्तियार होता।
पर प्रकृति के नियमों पर जोर चलता कहां है?
होता वही है जो विधना ने लिख दिया है।

***नवीन कुमार पाठक (मनोज)*****

©Kumar Manoj प्रकृति के नियम#

प्रकृति के नियम#