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विरह वेदना अंतहीन, घायल मृगी सी सिसक रही। विकल प्र

विरह वेदना अंतहीन,
घायल मृगी सी सिसक रही।
विकल प्राण, सजल नयन,
मयूरी माधव बिन अकुला रही।

व्याकुल हृदय, दुःख से विहल,
चक्षु निर्झर बहा रही।
बैरन वंशीवट, कालिंदी तट,
शरद रैन तड़पा रही।

नीरव निशा, गहन तम,
सूनी सेज दग्धा रही।
सौतन लगे मुरली माखन,
गोपी आठों याम घबरा रही।

करूण क्रंदन करें षोड़स श्रृगांर ,
विकल आत्मा,विरह रागिनी गा रही।
लौट आ केशव, विरह तप्त ,
तेरी ग्वालिनी पुकार रही।

हृदय मरुस्थल,यौवन पतझड़,
धेनु गिरिधर की रंभा रही।
सुन योग संदेशा, हरे हुए घाव,
गोपियां उद्धव से बतला रही।

©Dr. Bhagwan Sahay Rajasthani
  विरह वेदना

विरह वेदना #कविता

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