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शामें इतवार की मुझको बहुत भाती, 2 कप चाय के लेकर,

शामें इतवार की मुझको बहुत भाती,
2 कप चाय के लेकर, बालकनी से तुम्हारा इंतज़ार करती जाती।
ठीक 5 बजे सड़क के मोड़ से तुम हाथ हिलाते आते,
रजनीगंधा के अमोल पालेकर की याद दिलाते।
फिर बालकनी में चाय की चुस्किया लेते लेते,
सामने मैदान में खेलते बच्चो को हम घंटों निहारते,
कभी किसी कैच पर उछल के तुम ताली भी बजाते।
तुम्हारे इस बचपने पर बड़ी हंसी सी आती,
तुम्हारी ताली, मेरी हंसी हवाओं में रंग सा भर जाती।
कहने को प्रोफेसर हो, पर लगते वही मनमौजी पालेकर हो।
तुम पूरे हफ्ते के दफ्तर की कहानियां सुनाते,
मै भी अपना लिखा कुछ कुछ सुनाती रहती,
सामाजिक चर्चा,विचार विमर्श करते करते,
गर तुम्हे एक कप चाय और पीनी होती ,तो बड़े अंदाज़ में बोल देते,
सुनो!चाय बहुत अच्छी बनाती और मैं हंसकर दो कप और ले आती।
इन सब के बीच सांझ सुरमई रंग में ढलने लगती,
पता भी नहीं चलता और तुम्हारे जाने का वक़्त हो जाता,
अगले इतवार का वादा कर तुम निकल जाते,
तुम्हारी परछाई छोटा होता हुए देखती, लंबी ख़ाली सड़क से दूर तक जाते।
अरे! आज तो इतवार है,दो कप चाय बनाती हूं और बाहर आ जाती हूं।
यूं तो अब तुम नहीं आते,
पर मैं और ये बालकनी आज भी हर इतवार तुम्हारे इंतजार का वादा निभाते! आ जाओ कि फिर एक कप चाय और पीनी है ☕

शामें इतवार की मुझको बहुत भाती,
2 कप चाय के लेकर, 
बालकनी से तुम्हारा इंतज़ार करती जाती।
ठीक 5 बजे सड़क के मोड़ से तुम हाथ हिलाते आते,
रजनीगंधा के अमोल पालेकर की याद दिलाते।
फिर बालकनी में चाय की चुस्किया लेते लेते,
शामें इतवार की मुझको बहुत भाती,
2 कप चाय के लेकर, बालकनी से तुम्हारा इंतज़ार करती जाती।
ठीक 5 बजे सड़क के मोड़ से तुम हाथ हिलाते आते,
रजनीगंधा के अमोल पालेकर की याद दिलाते।
फिर बालकनी में चाय की चुस्किया लेते लेते,
सामने मैदान में खेलते बच्चो को हम घंटों निहारते,
कभी किसी कैच पर उछल के तुम ताली भी बजाते।
तुम्हारे इस बचपने पर बड़ी हंसी सी आती,
तुम्हारी ताली, मेरी हंसी हवाओं में रंग सा भर जाती।
कहने को प्रोफेसर हो, पर लगते वही मनमौजी पालेकर हो।
तुम पूरे हफ्ते के दफ्तर की कहानियां सुनाते,
मै भी अपना लिखा कुछ कुछ सुनाती रहती,
सामाजिक चर्चा,विचार विमर्श करते करते,
गर तुम्हे एक कप चाय और पीनी होती ,तो बड़े अंदाज़ में बोल देते,
सुनो!चाय बहुत अच्छी बनाती और मैं हंसकर दो कप और ले आती।
इन सब के बीच सांझ सुरमई रंग में ढलने लगती,
पता भी नहीं चलता और तुम्हारे जाने का वक़्त हो जाता,
अगले इतवार का वादा कर तुम निकल जाते,
तुम्हारी परछाई छोटा होता हुए देखती, लंबी ख़ाली सड़क से दूर तक जाते।
अरे! आज तो इतवार है,दो कप चाय बनाती हूं और बाहर आ जाती हूं।
यूं तो अब तुम नहीं आते,
पर मैं और ये बालकनी आज भी हर इतवार तुम्हारे इंतजार का वादा निभाते! आ जाओ कि फिर एक कप चाय और पीनी है ☕

शामें इतवार की मुझको बहुत भाती,
2 कप चाय के लेकर, 
बालकनी से तुम्हारा इंतज़ार करती जाती।
ठीक 5 बजे सड़क के मोड़ से तुम हाथ हिलाते आते,
रजनीगंधा के अमोल पालेकर की याद दिलाते।
फिर बालकनी में चाय की चुस्किया लेते लेते,