मैं अभी भी वहीं रुकी हूँ तुम्हारी प्रतीक्षा में और आहिस्ता आहिस्ता समय बीत रहा है समंदर के किनारे रेत पर जो तुमने पदचिन्ह बनाये थे वो मेरे हृदय में अपनी छाप छोड़ता जा रहा है समय की गति का अंदाजा भी नहीं है तुमको ये उम्र अब यौवन को ढलती उम्र का लिबाज़ पहना रहा है सुबह के सूरज सा चमकता था जो मेरा रंग-रूप अब आहिस्ता आहिस्ता धूमिल हो रहा है तुम्हारी प्रतीक्षा में मेरा व्यक्तित्व तिमिर सा गहन होता जा रहा है एक बार इस अंर्तमन की व्यथा को समझ के आ जाओ आ जाओ प्रिय इन श्वासों का बोझ अब सहन नहीं हो रहा है ... ©Richa Dhar #samay अंतर्मन