........ जिस उहापौह में आधे से ज्यादा जीवन व्यतीत कर दिया यदि उसके विपरीत जिया जाता तो भी हम जीवन से उतने संतुष्ट नहीं हो पाते जितने की हम चाह रखते, हम मनुष्य हैं तो कर्म भी अपने मूल स्वभाव के अनुरूप ही करते हैं, केवल वस्तुओं का ही अनधिमान वक्र नहीं होता मनुष्य की इच्छाएं और आवश्यकताएं भी ऐसी ही होती हैं, हम व्यक्ति, वस्तु, प्रेम, संतोष, आनंद, आयु, धन, स्वास्थ्य सभी का समान अनुपात चाहते हैं जीवन में जो कभी संभव ही नहीं परन्तु आवश्यक सब है संतुलन बनाये रखने के लिए, कभी इच्छा को महत्व देते हैं तो कभी