पता नहीं कितना अवसाद था, जो अंत तक नहीं गला। पता नहीं कितना अंधकार था, जो सूर्योदय के साथ नहीं ढला। महाकाय हिमखंडों का बना हूँ जो जिंदगी रहते नहीं पिघलते, अंदाज़ कर रहा हूँ कितने रुके देख रहा हूँ कइयों को साथ चलते, पता है कि मैं कोई वजह नहीं हूँ, कोई चाहत नहीं हूँ, कोई मतलब-बेमतलब मुस्कुराहट नहीं हूँ। माँ-बाप के लिए अपाहिज संतान सा एक अटल, प्रबल प्रारब्ध हूँ अमंगल, जिसे चाहत से ओढा या मजबूरी से छोड़ा नहीं जा सकता, जिसने लेने में कसर नहीं छोड़ी पर जो इस जन्म कुछ देकर नहीं जा सकता। वो घर का अहसानों का अंबार और अरमानों से रिक्त एक नीरव कोना है, उसके न होने या गुमने का गम होता है पर उसका होना भी आप में रोना है। प्रारब्ध।