" तवाइफ " दर्द लिखने की एक छोटी कोशिश की है ! दिन में रोती, बिलखती, चिल्लाती कुछ दिल के ,कुछ जिस्म के जख्मों पर मरहम लगाती रोज रात फिर शृंगार कर नम आँखों से बिस्तर पर निभाती कल की इक मासूम अल्हड़ लड़की आज तवाइफ़ कहलाती ! कुछ ख्वाब नैनो में उसने भी संजो रखे थे प्रेम के कुछ बीज दिल में उसने भी बो रखे थे फिर इक रात एक दरिंदा वो नगरी तबाह कर गया बैठा कोठे की चौखट उसे "तवाइफ़" कर गया ! कभी कोशिश करती, कभी गुहार लगाती निकलने को उस दोजख़ से जाने क्या-क्या जुगत लगाती फिर हार थक जिस्म सौदागरों के हाथों को बदन पर बर्दाश्त करती सुना है मैने भी वो ही पागल लड़की आज तवाइफ़ कहलाती ! जाने किस ज़ुर्म का वो हिसाब चुका रही कुछ हवस के भेड़ियों की वो प्यास बुझा रही इक प्रश्न है मेरा क्यों उसे सामाजिक रूप से निकृष्ट करार दिया जिन दरिंदों ने जी भर लूटा उसे वो रहे पाक पवित्र उसे ही क्यों "तवाइफ़" नाम दिया ?? दिन में रोती, बिलखती, चिल्लाती कुछ दिल के ,कुछ जिस्म के जख्मों पर मरहम लगाती रोज रात फिर शृंगार कर नम आँखों से बिस्तर पर निभाती कल की इक मासूम अल्हड़ लड़की आज तवाइफ़ कहलाती ! कुछ ख्वाब नैनो में उसने भी संजो रखे थे प्रेम के कुछ बीज दिल में उसने भी बो रखे थे फिर इक रात एक दरिंदा वो नगरी तबाह कर गया