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लिखने बैठूं कुछ गीला सा कागज होता है, जैसे भीतर

लिखने बैठूं
कुछ गीला सा कागज होता है, 
जैसे भीतर से, जार जार रोता है,

लिखने बैठूं
कलम पकड़ हाथ कंपोता है, 
अक्षर हिलता है, जैसे धीरे से सुबकता है,

लिखने बैठूं
कांपता हाथ इबारत लिखता है, 
जैसे लहरों में तेरा अक्स उभरता है,

लिखने बैठूं
कोई कंकड़ जाने कहां से आ गिरता है, 
और गोलाकार तरंगों संग सब धूमिल होता है,

लिखने बैठूं
तुम्हारे गुम जाने का दिल में डर उठता है, 
तब कागज गीला था अब दिल रोता है,

लिखने बैठूं
नोंक कलम का भीतर चुभता है, 
हाथ कांपता था लिखने में ‘बेतौल’, 
अब सारा बदन सिहरता है।

©बोल_बेतौल by Atull Pandey
  #लिखना #किताब
#बोल_बेतौल