प्रेम.. न तो कभी पूरा आकाश हो पाया और न ही कभी पूरी धरा....। वह.. न ही कभी पूरी मिट्टी हुआ और न ही कभी पूरी हवा..। प्रेम की पूर्णता .. शायद इसी अपूर्णता में ही निहित रही। तभी मेरे भीतर.... न तो 'मैं' ही पूरी रही और न ही कभी.. पूरी 'तुम' हो पाई..।। प्रेम.. कण-कण में रहा कस्तूरी-सा महका ..। रात से सवेरा हुआ , सवेरे से शाम में ढला। वह न तो कभी एकरंग हो पाया और न ही कभी एकरूप में ही ढल पाया। तभी शायद.. तुममें.... 'तुम' पूरे न रहे और न ही कभी # प्रेम अधूरा ही रहा.. प्रेम.. न तो कभी पूरा आकाश हो पाया और न ही कभी पूरी धरा....।