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.... Dear , मैं आज़ तुम्हें क्यों लिख रही हूं ये

.... Dear ,

मैं आज़ तुम्हें क्यों लिख रही हूं ये तो मुझे नहीं पता पर तुम्हारी कही हुई एक बात याद आ रही है कि बिना कहे किसी बोझ को जीवन भर ढोने से अच्छा है उसे एक क्षण कहकर उतार देना । 
हो सकता है हमारी जीभ पर उस वक्त शब्दों का भार अधिक हो पर हृदय पर कभी भावों का बोझ नहीं बढ़ना चाहिए ।

मैंने हमेशा तुम्हें शब्दों से अधिक जिया है। हां 
वो संसार का सबसे निर्भीक क्षण था जब मैंने अपने ईश्वर के गर्भगृह में प्रवेश करते हुए तुम्हारा हाथ थाम लिया इसलिए नहीं की हमारी हस्त रेखाओं का सफ़र मिलकर एक हो जाए और तुम मेरे हमसफ़र बन जाओ 
नहीं बिल्कुल नहीं।
.... Dear ,

मैं आज़ तुम्हें क्यों लिख रही हूं ये तो मुझे नहीं पता पर तुम्हारी कही हुई एक बात याद आ रही है कि बिना कहे किसी बोझ को जीवन भर ढोने से अच्छा है उसे एक क्षण कहकर उतार देना । 
हो सकता है हमारी जीभ पर उस वक्त शब्दों का भार अधिक हो पर हृदय पर कभी भावों का बोझ नहीं बढ़ना चाहिए ।

मैंने हमेशा तुम्हें शब्दों से अधिक जिया है। हां 
वो संसार का सबसे निर्भीक क्षण था जब मैंने अपने ईश्वर के गर्भगृह में प्रवेश करते हुए तुम्हारा हाथ थाम लिया इसलिए नहीं की हमारी हस्त रेखाओं का सफ़र मिलकर एक हो जाए और तुम मेरे हमसफ़र बन जाओ 
नहीं बिल्कुल नहीं।