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बाज़ार गर ख़ुशियों का होता, तो दुःखी कोई ना हो पा

बाज़ार गर ख़ुशियों का होता, 
तो दुःखी कोई ना हो पाता
ये ख्याल जब जेहन में आया
तो एक सवाल भी कहीं मन
में आया,की खरीददार कितने
होते,जो खुशियों का मन माना
दाम लगाते,फ़िर कौन गरीब
खुद को खुशनसीब कह सकता
था,हर कोई दुःख ही झेल सकता
था, गनीमत है की बाजार नहीं 
खुशियों का, रब की इनायत है
की हर इंसा का मुकद्दर जो उसने
लिखा है,जिसमें ख़ुशियों के साथ
दुःख को भी मिश्रित किया है
हम दुःख में ही सही उसको याद
किया करते है, अपनी खुशियों की
हर घड़ी फ़रियाद किया करते है

©पथिक..
  #ख़ुशीऔरदुख #