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तुम्हारी प्रीत की पात्रता में मैं ही क्यूँ अपात

  
तुम्हारी प्रीत की पात्रता में मैं ही क्यूँ अपात्र हुयी

  तुम्हें ढ़ूंढ़ती फिर रहीं हूँ यहाँ 
भीड़ में हर परछाईं में
बस तुम नज़र आते हो यहाँ 
मेघ में पुरवाई में 
नज़र तो यूँ खुद को भी लगी
पर तुम पर जो लगी 
वो धीर पावन,अग्नि की ओट से तपी हुई 
तुम्हें महसूस कर पाना कर्णफ़ूलों का
  
तुम्हारी प्रीत की पात्रता में मैं ही क्यूँ अपात्र हुयी

  तुम्हें ढ़ूंढ़ती फिर रहीं हूँ यहाँ 
भीड़ में हर परछाईं में
बस तुम नज़र आते हो यहाँ 
मेघ में पुरवाई में 
नज़र तो यूँ खुद को भी लगी
पर तुम पर जो लगी 
वो धीर पावन,अग्नि की ओट से तपी हुई 
तुम्हें महसूस कर पाना कर्णफ़ूलों का