पिछली दीवाली का कुर्ता याद है ना अरे वही जो इमरान भाई की दुकान से लिया था मंदिर के सामने वाली दुकान जहां मंदिर मेे जाते हुए लोग अपनी चप्पल रख जाते हैं इमरान भाई कोई भाड़ा जो नहीं लेते कुर्ता अब गलें पर कुछ चुस्त सा लगता है मानो दम घोंट रहा हो उसमे कुछ हरे रंग के डोरे भी दिखते हैं पहले भी थे शायद? पता नहीं अब आखों मेे चुभते हैं जिन मुसलमान हाथों ने बुना है इनको मानो अब सूई पिरो रहे हो मेरे जिस्म में मंदिर के आगे ही दुकान रखी है मस्जिद के आगे क्यों नहीं? बनने के लिए पैसे भी नहीं लेते मौके की ताक में हैं शायद नहीं नहीं ये सब मैं क्या सोच रहा हूं? दिया जलाया हैं आज दीवाली का उसी चुस्त कुर्ते में दम बंद हो जाए शायद मजहबी खयालों का। दीवाली का कुर्ता #ManKaRog