बिना तुम्हारे सुबह अवध की रात सरीखी लगती है बिना तुम्हारे पूरी दिल्ली फीकी - फीकी लगती है । बिना तुम्हारे चौक - चाँदनी में पग सूने लगते हैं बिना तुम्हारे गम के बदल छाती छूने लगते हैं । बिना तुम्हारे हम ने छत पे आना - जाना छोड़ दिया तेरे छत पे तकने का हर एक बहाना छोड़ दिया बच्चे कहते हैं चाचू क्यूँ पतंग उड़ाना छोड़ दिया ! बिना तुम्हारे नाविक काका ने बातें दोहरायी हैं जब भी जाता हूं कहते हैं बिटिया क्यूँ नहीं आयी है ! बिना तुम्हारे ये बारिश की बूंदे हाथ जलाती हैं और तुम्हारा नाम बुलाकर भाभी मुझे चिढ़ाती हैं । बिना तुम्हारे ख्वाब का सूरज चंदा होना भूल गया बिना तुम्हारे आज सुबह मैं ज़िंदा होना भूल गया । बिना तुम्हारे अबकी फागुन गाल गुलाबी नहीं हुआ बिना तुम्हारे अपना लहज़ा कभी नवाबी नहीं हुआ । अभी कई वादे बाकी थे उन वादों को तोड़ो भी बिना तुम्हारे कितने शिकवे . . . खैर हटाओ छोड़ो भी । बिना तुम्हारे