जो जाने मंज़िल को निकलते थे तलाश मे रुक गए हैँ पाव घरे आस मे फ़िक्र करे जान के वसूल ख़िलाफ़त की बंदियों की बंदिश क्या हैँ ज़नाब, आज जाना हैँ हिसाब से | आर्य "अधूरा" #धारा144