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जानिब तुम नहीं मेरे तो जानिब क्यों समझते हो नज़र

जानिब  तुम नहीं मेरे तो जानिब क्यों समझते हो 
नज़र है दूसरी जानिब  मुखातिब  क्यों समझते हो

ये धोका है और धोखे में कत्ल वाजिब मुहब्बत का
वो तेरा साथ क्यों देगा  मुनासिब क्यों समझते  हो

तुम्हारी आवाज़ हू मैं,आवाज़ की आवाज़ हो जाओ
कलम  देकर ही मुझको तुम कातिब क्यों समझते है


मुझे मरने  का डर नही  तानाशाही  सल्तनत भी है 
जो करे नश्लों का बटवारा साहिब क्यों समझते हो

©Irfan Saeed Bulandshari
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