"डरे हुए लोग " एक जमाने की परवाह लिये बस तलब सी रह गयी मिलती बिछुड्ती हवाएं, रंगत में संगत मिल जाये मगर मुझे खुश नहीं दिखते डरे हुए लोग। बेफिक्र बैठे अंधरे के साये में ,कभी अन्धेरा भी चमक जाता था उनकी मासूमियत कभी लज्जती नहीं होगी मुस्कुराते हुए देखे तो डरे हुए लोग । क्या तुम निस्छल कपट नही जानते? जिंदगी के तुजुर्वे ही बतला जाते हैं मगर खौफनाक यादों का सिलसिला में भी लाया करता हुँ मगर डरे हुए लोग? कदम भर की जमीन डगर गयी ,हुंकार मगर किसी बेबस बेजुवा की कभी लडता नहीं हुँ तूफान से क्योंकि इस ओर बैठे हैं डरे हुए लोग । इश्क़्मिजाज की हरकत लिये कभी हंस जाया करता था पूछना अपने से कोमलता का राज लिये मगर साये का बसेरा नहीँ यहां डरे हुए लोग हैं ।