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ग़ज़ल हमारी  ज़िन्दगानी में   जो  इतनी  शादमा

ग़ज़ल   

 हमारी  ज़िन्दगानी में   जो  इतनी  शादमानी  है।
  ये अपनों की इनायत है, ख़ुदा  की  मेहरबानी  है। 

महेज़  क़तरा  समझिए मत इसे दो बूंद पानी का,
बयां  जो कर नहीं सकते उसी  की तरजुमानी  है।

उजड़ता  जा   रहा  है  धीरे-धीरे   बागबां  अपना,
ये  कैसी  हुक्मरानी  है, ये  कैसी  निगहबानी  है। 

ये दुनियां चार दिन की है  बहुत उम्मीद ना रखना,
सुनाई  जा  रहीं  हैं  जो  फकत  झूठी  कहानी है।

मसर्रत  बढ़ती  जाती है  कभी जब सोचते हैं हम,
वरासत  में  मिली  हमको  बुज़ुर्गों की निशानी है।

चलो सिक्का  उछालो जो  भी होगा  देखा जायेगा,
हमें   फूटी   हुई  क़िस्मत  मुक़र्रर  आज़मानी  है।

ये कैस  रहनुमां  हैं  जो  हमें  पहचान  ना  पाए,
अरे  पहचान  तो  ज़ीशान अपनी   ख़ानदानी  है। ज़ीशान अंसारी बरकाती
ग़ज़ल   

 हमारी  ज़िन्दगानी में   जो  इतनी  शादमानी  है।
  ये अपनों की इनायत है, ख़ुदा  की  मेहरबानी  है। 

महेज़  क़तरा  समझिए मत इसे दो बूंद पानी का,
बयां  जो कर नहीं सकते उसी  की तरजुमानी  है।

उजड़ता  जा   रहा  है  धीरे-धीरे   बागबां  अपना,
ये  कैसी  हुक्मरानी  है, ये  कैसी  निगहबानी  है। 

ये दुनियां चार दिन की है  बहुत उम्मीद ना रखना,
सुनाई  जा  रहीं  हैं  जो  फकत  झूठी  कहानी है।

मसर्रत  बढ़ती  जाती है  कभी जब सोचते हैं हम,
वरासत  में  मिली  हमको  बुज़ुर्गों की निशानी है।

चलो सिक्का  उछालो जो  भी होगा  देखा जायेगा,
हमें   फूटी   हुई  क़िस्मत  मुक़र्रर  आज़मानी  है।

ये कैस  रहनुमां  हैं  जो  हमें  पहचान  ना  पाए,
अरे  पहचान  तो  ज़ीशान अपनी   ख़ानदानी  है। ज़ीशान अंसारी बरकाती

ज़ीशान अंसारी बरकाती #Music