बीत रहे दिन रैन सखी अँखियाँ अब थकने लगी। बहुत जी लिए औरों के लिए अपनी पसंद खो गई जमाने में पाने को वाह वाही खुद से गुफ्तगू करना भूल गई सबके मिज़ाज पढ़ने में साज बजाना भूल गई आज भी सरगम से होता संवाद अहसास आज भी होता तरंगित महफिल में मुस्कूराती बहुत हूँ खुद से अँखियाँ मिलाना भूल गई । जागते आँखों से बहुत स्वप्न आते हैं सपनों में सपने देखना भूल रही । आरती राय.दरभंगा बिहार सोच