ढहने लगे हैं खुशियों के मंजर अब रेत से कभी चहकती थी कोयल बाग में और हरियाली खेत से माना बंटा हुआ था समाज जातिवाद के भेद से पर यकीन मानो हमारे बुजुर्ग कम्प्यूटर से भी तेज थे जब तक साथ रहा लंगोटी यार का हमारे लिये हर दिन इतवार था माँ जब भी आँगन में बैठकर रोटियाँ पिरोती थी सारा दिन मजे में और रात सुकून की होती थी हर मर्ज की दवा और वो नुस्खे दादी के जींस शर्ट कभी नहीं पहने बस सिंपल छोटी कुर्ता वो भी खादी के अब तो दम घुटता है इस शहरी परिवेश से ढहते लगे हैं खुशियाँ के मंजर अब रेत से ©Ravit Choudhary ग्रामीण परिवेश 🥰🥰 #RavitChoudhary #ravit_writes #choudharystation #WorldPoetryDay Rowdy Girl