Nojoto: Largest Storytelling Platform

आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता जीवधारियों के शरीर

आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता
जीवधारियों के शरीर में व्याप्त इस चेतना का ही नाम आत्मा है। सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञान तथा प्रयत्न उसके धर्म और गुण हैं। न्याय और वैशेषिक दर्शनों में आत्मा के रहस्यों पर विशद प्रकाश डाला गया है और उसे परमात्मा का अंश बताया गया है। यह आत्मा ही जब सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष आदि विकारों का त्याग कर देती है तो वह परमात्म-भाव में परिणित हो जाता है।

आज भौतिक विचारधारा के लोग इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होते। उनकी दृष्टि में शरीर और आत्मा में कोई भेद नहीं है। इतना तो कोई साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी आसानी से सोच सकता है कि जब उसके हृदय में ऐसे प्रश्न उठते रहते हैं—’मैं कौन हूँ’, ‘मैं कहाँ से आया हूँ’, ‘मेरा स्वरूप क्या है’, ‘मेरे सही शरीर-धारण का उद्देश्य क्या है’ आदि। ‘मैं यह खाऊँगा’, ‘मुझे यह करना चाहिए, ‘मुझे धन मिले’—ऐसी अनेक इच्छायें प्रतिक्षण उठती रहती हैं। यदि आत्मा का प्रथम अस्तित्व न होता तो मृत्यु हो जाने के बाद भी वह ऐसी स्वानुभूतियाँ करता और उन्हें व्यक्त करता। मुख से किसी कारणवश बोल न पाता तो हाथ से इशारा करता, आँखें पलक मारती, भूख लगती, पेशाब होती। पर ऐसा कभी होता नहीं देखा गया। मृत्यु होने के बाद जीवित अवस्था की सी चेष्टायें आज तक किसी ने नहीं कीं, आत्मा और शरीर दो विलग वस्तुयें—दो विलग तत्व होने का यही सबसे बड़ा प्रमाण है। आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता
आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता
जीवधारियों के शरीर में व्याप्त इस चेतना का ही नाम आत्मा है। सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञान तथा प्रयत्न उसके धर्म और गुण हैं। न्याय और वैशेषिक दर्शनों में आत्मा के रहस्यों पर विशद प्रकाश डाला गया है और उसे परमात्मा का अंश बताया गया है। यह आत्मा ही जब सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष आदि विकारों का त्याग कर देती है तो वह परमात्म-भाव में परिणित हो जाता है।

आज भौतिक विचारधारा के लोग इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होते। उनकी दृष्टि में शरीर और आत्मा में कोई भेद नहीं है। इतना तो कोई साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी आसानी से सोच सकता है कि जब उसके हृदय में ऐसे प्रश्न उठते रहते हैं—’मैं कौन हूँ’, ‘मैं कहाँ से आया हूँ’, ‘मेरा स्वरूप क्या है’, ‘मेरे सही शरीर-धारण का उद्देश्य क्या है’ आदि। ‘मैं यह खाऊँगा’, ‘मुझे यह करना चाहिए, ‘मुझे धन मिले’—ऐसी अनेक इच्छायें प्रतिक्षण उठती रहती हैं। यदि आत्मा का प्रथम अस्तित्व न होता तो मृत्यु हो जाने के बाद भी वह ऐसी स्वानुभूतियाँ करता और उन्हें व्यक्त करता। मुख से किसी कारणवश बोल न पाता तो हाथ से इशारा करता, आँखें पलक मारती, भूख लगती, पेशाब होती। पर ऐसा कभी होता नहीं देखा गया। मृत्यु होने के बाद जीवित अवस्था की सी चेष्टायें आज तक किसी ने नहीं कीं, आत्मा और शरीर दो विलग वस्तुयें—दो विलग तत्व होने का यही सबसे बड़ा प्रमाण है। आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता
halendraprasad5961

HP

New Creator

आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता