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विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भी वंचित क

विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भी वंचित कर
 उनसे तुमने की है रक्षा मेरी; 
संचित कृपा कठोर तुम्हारी है मम जीवन में।
अनचाहे ही दान दिए हैं तुमने जो मुझको, 
आसमान, आलोक, प्राण तन-मन इतने सारे, 
बना रहे हो मुझे योग्य उस महादान के ही, 
अति इच्छाओं के संकट से त्राण दिला करके ।
मैं तो कभी भूल जाता हूँ, पुनः कभी चलता, 
लक्ष्य तुम्हारे पथ का धारण करके अन्तस् में, निष्ठुर ! 
तुम मेरे सम्मुख हो हट जाया करते ।
यह जो दया तुम्हारी है, वह जान रहा हूँ मैं, 
मुझे फिराया करते हो अपना लेने को ही । 
कर डालोगे इस जीवन को मिलन-योग्य अपने,
 रक्षा कर मेरी अपूर्ण इच्छा के संकट से ।।
रविन्द्र नाथ टैगोर

©Shweta Mairav
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