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// गुफ़्तगू // मालूम नहीं क्या हूं मैं क्या नही

// गुफ़्तगू //

मालूम नहीं  क्या हूं मैं  क्या नहीं हूं मैं
हूं कहीं और  क्यूॅं लगता पर यहीं हूं मैं।

मुलाक़ात हुए बरसों बीत गया  ज़िंदगी 
जिंदगी  कहीं है  तो  और  कहीं  हूं मैं।

आता नहीं  ख़्वाबों के  महल सजाना
शख्सियत ही  ऐसी  ख़ाक-नशीं हूं मैं।

होती नहीं गुफ़्तगू मेरी ख़ुद से भी अब
परछाई साथ छोड़ दे  खड़ी वहीं हूं मैं।

वो ज़र्रे ज़र्रे में मौजूद है मगर मैं भी 
कहीं कहीं हूं कहां हूं कहीं नहीं हूं मैं।

रौनक-ए-महफ़िल  भी  दिल को तो
ख़ुश करता नहीं   क़ल्ब-ए-हज़ीं हूं मैं।

उस रोज़ सुक़ूं-ए-दिल मिलता 'अर्चना' 
जब आके वो कहता  माह-जबीं हूं मैं।

©Archana Verma Singh
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