देखती है जब रक्तरंजित सुबह पकड़ लेती है कोना घर का हो जाती है अपवित्र समाज की नजरों में झांकती नहीं रसोइयों में पी जाती है पीड़ा नीर के साथ घर की देवी कर लेती है दूर खुद को मंदिरों से जैसे अधिकार नहीं रखती वो पूजा-प्रार्थना का भी..! बन जाती है अछूत कुछ दिन सबके लिए छूत होने से पहले झेलती है मानसिक तंज उपेक्षा अवहेलना के.. स्थितियों में ऐसी तोड़ ढ़कोसले दुनिया के फैलाकर बाहें मैं नभ हो जाता हूँ उसके बिखरे बाल सटाकर कानों में चूम लेता हूँ माथा उसका कर लेता हूँ पवित्र स्वयं को.. आखिर नारी से ही जन्मा हूँ मैं भी!! ©KaushalAlmora #700 #एहसास #नारी #poetry #life #रक्तरंजित #मासिकधर्म #yqdidi