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*जिसे तुम कविता कहते हो* ----- बिल्कुल ही एक मजदूर

*जिसे तुम कविता कहते हो*
-----
बिल्कुल ही एक मजदूर की तरह
जब खुद को जोड़ा हूं 
झिंझोड़ा हूं 
दिन रात
आंखों को फोड़ा हो
निचोड़ा हूं 
तब जाकर कहीं कुछ पंक्तियां लिख पाया हूं 
जिसे तुम कविता कहते हो
दरअसल यह कविता नही
मेरी आंखों का छिना हुआ सुकून है
परिश्रम है; पसीना है; खून है
••••
नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन' प्रयागराज 🙏

©Narendra Sonkar *जिसे तुम कविता कहते हो*
*जिसे तुम कविता कहते हो*
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बिल्कुल ही एक मजदूर की तरह
जब खुद को जोड़ा हूं 
झिंझोड़ा हूं 
दिन रात
आंखों को फोड़ा हो
निचोड़ा हूं 
तब जाकर कहीं कुछ पंक्तियां लिख पाया हूं 
जिसे तुम कविता कहते हो
दरअसल यह कविता नही
मेरी आंखों का छिना हुआ सुकून है
परिश्रम है; पसीना है; खून है
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नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन' प्रयागराज 🙏

©Narendra Sonkar *जिसे तुम कविता कहते हो*