जैसे-तैसे दिन गुजरा बेचैन बहुत ही रात थी। तन्हाई! दुल्हन बन बैठी यादों की बारात थी। जल बिन मछली सी तड़प रही धड़कन मेरी! ज़ज़्बातों के अंधड़ थे बे-मौसम बरसात थी। गौ-धूलि की बेला में धुंधली सी मेरी परछाई! रूठ गई छुप बैठ गई वो भी ना मेरे साथ थी। जैसे-तैसे दिन गुजरा बेचैन बहुत ही रात थी। तन्हाई! दुल्हन बन बैठी यादों की बारात थी। जल बिन मछली सी तड़प रही धड़कन मेरी! ज़ज़्बातों के अंधड़ थे बे-मौसम बरसात थी। गौ-धूलि की बेला में धुंधली सी मेरी परछाई! रूठ गई छुप बैठ गई वो भी ना मेरे साथ थी। ©दिव्यांशु पाठक