करता भी क्यां आसमान उस परिंदे के लिए... जो जिस्म बचा रहा है एक दरिंदे के लिए..। शायद ये ख़ामोशी इलज़ाम को तवज्जोह है... मॆरी आँखें लाऊँ कहाँ से अंधे के लिए..। और इसे तरक़्क़ी कहूँ या मेरी नाकामी... चार लोग भी न रहॆ आख़िरी कंधे के लिए..। चंद पैसो के लिए वो रोज़ ज़मीर बेंचकर... कहता है करना पडता है धंदे के लिए..। - ख़ब्तुल संदीप बडवाईक ©sandeep badwaik(ख़ब्तुल) 9764984139 instagram id: Sandeep.badwaik.3 ज़मीर