अनवरत जागती वो बूढ़ी आँखे तेरे आने की आहट पाने के लिये द्वार को ताकती बूढ़ी आँखे , अब वो निवाला भी हलक़ से निगला जाता नहीं तुम्हे खिला के जो खाती थीं बूढ़ी आँखे ! चार थीं वो कभी तुम्हारे आने से छः हुआ करती थीं तुम क्या गये दो बची बूढ़ी आँखे , घर का वो आँगन भरा पूरा था कभी आज देख कर वीरानगी आँसू बहाती बूढ़ी आँखे ! याद करो वो तुम्हारे बीमार पड़ते आँखों में गुजारती रातें आज खुद लाचार हैं बूढ़ी आँखे , रोके रखी थी वो एक साँस जो तुमसे मिलने के लिये चल बसी इस आस में बूढ़ी आँखे !! बूढ़ी आँखे अनवरत जागती वो बूढ़ी आँखे तेरे आने की आहट पाने के लिये द्वार को ताकती बूढ़ी आँखे , अब वो निवाला भी हलक़ से निगला जाता नहीं तुम्हे खिला के जो खाती थीं बूढ़ी आँखे ! चार थीं वो कभी तुम्हारे आने से छः