कब तक सहा जाएगा? कब तक कहा जाएगा? सोच नहीं बदली तो, कैसे जीवन जिया जाएगा? पाबंदियों को तोड़कर, मुश्किलों को झेल कर, आज़ाद हो जाओ तुम, इस जग को छोड़कर। ज़माने की नज़रें हैं निदॆयी, देखती हैं सबको कुहृदयी, सोच ने डाला है ऐसा परदा, कि कुंती माँ भी मजबूर हुई। ©Santosh Sharma #मानसिकता