सोची हुई प्रेयसी इस शरद चांदनी के आगोश में , तुम भी हो , मै भी हु , तुम भी हो। बात नैनो से करते है दोनों यहाँ , चुप तुम भी हो, मै भी हु, तुम भी हो। धड़कने कह रही तुम तो मेरी सुनो, जो है दिल कह रहा बस उसीको चुनो । दिल की ख्वाहिश मै मेरे बस एक यहाँ , तुम ही हो , तुम ही हो , तुम ही हो। इस शरद चांदनी के आगोश में, तुम भी हो , मै भी हु , तुम भी हो। तेरी आँखों का काजल भी कुछ कह रहा, दर्द विरह के दिल ये क्यो सह रहा। इस दर्द की तड़पती आवाज में, तुम भी हो , मै भी हु , तुम भी हो। इस शरद चांदनी के आगोश में, तुम भी हो , मै भी हु , तुम भी हो। तेरे नैना है जैसे कि सागर कोई , अमृत से भरा जैसे गागर कोई। इस अमृत की तृष्णा के प्यासे यहां, तुम भी हो ,मै भी हु, तुम भी हो। इस शरद चांदनी के आगोश में , तुम भी हो, मै भी हु, तुम भी हो। सोच कर के तुझे मैने वर्णन किया, जो हुआ ही नही है उसे जी लिया। मेरी कविता का इक - इक कतरा यहां , तुम भी हो , मै भी हु , तुम भी हो। लेखक- प्रवीण मगर स्वप्न प्रेयसी