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सड़कों पर कोई इंसान नहीं है। पहले वाला ये ज़हान न

सड़कों पर कोई इंसान नहीं है।
पहले वाला  ये ज़हान नहीं है।

घोलता रहा ज़हर जो हवाओं में,
मुंह छुपाए अब वो नादान कहीं है।

मरहम लग रहें हैं कुदरत के ज़ख्मों पर,
कुरेदने को उन्हें बाहर इंसान नहीं है।

बेजुबानों को पिंजरे में कैद करने वालों को,
ख़ुद के हीं घर में इत्मिनान नहीं है।

वक्त बेवक्त है मौसम का रूख़
आगे का रास्ता आसान नहीं है।

वक्त का तकाज़ा कहता है सुधर जाओ,
कुदरत की लाठी में ज़ुबान नहीं है।

©Jupiter and it's moon@प्रतिमा तिवारी
  लाॅकडाउन में प्रकृति
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