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श्लोकों की संपूर्ण भागवत पुराण पुराणों के मुताबिक,

श्लोकों की संपूर्ण भागवत पुराण
पुराणों के मुताबिक, ब्रह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुति किए जाने पर
प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत-तत्व का उपदेश केवल चार श्लोकों में दिया था
जिनके पाठ से पूरी भागवत पाठ का फल मिलता है।
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम।।
अर्थ-सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत या उससे परे मुझसे
भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टी न रहने पर (प्रलयकाल में) भी मैं ही रहता
हूँ। यह सब सृष्टीरुप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टी, स्थिति तथा
प्रलय से बचा रहता है, वह भी मैं ही हूँ।
ऋतेऽर्थ यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद्विद्यादात्मनो माया यथाऽऽभासो यथा तमः ॥
अर्थ- जो मुझ मूल तत्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में
प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का)
प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेषवहम ||
अर्थ-जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश)
संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट
नहीं है, वेसे ही मैं भी व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।
एतावदेव जिज्ञास्यं त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः ।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा।।
अर्थ- आत्मतत्व को जानने की इच्छा रखनेवाले के लिए इतना ही
जानने योग्य है की अन्वय (सृष्टी) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम जो
तत्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्व है।
॥ जय श्रीमन्न नारायण ।

©KhaultiSyahi #story #bhagwatpuran  #gyan #shlok #Sanskrit #gyanoftheday  #Knowledge 📚
#Truth #Life_experience #khaultisyahi
श्लोकों की संपूर्ण भागवत पुराण
पुराणों के मुताबिक, ब्रह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुति किए जाने पर
प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत-तत्व का उपदेश केवल चार श्लोकों में दिया था
जिनके पाठ से पूरी भागवत पाठ का फल मिलता है।
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम।।
अर्थ-सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत या उससे परे मुझसे
भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टी न रहने पर (प्रलयकाल में) भी मैं ही रहता
हूँ। यह सब सृष्टीरुप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टी, स्थिति तथा
प्रलय से बचा रहता है, वह भी मैं ही हूँ।
ऋतेऽर्थ यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद्विद्यादात्मनो माया यथाऽऽभासो यथा तमः ॥
अर्थ- जो मुझ मूल तत्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में
प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का)
प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेषवहम ||
अर्थ-जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश)
संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट
नहीं है, वेसे ही मैं भी व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।
एतावदेव जिज्ञास्यं त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः ।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा।।
अर्थ- आत्मतत्व को जानने की इच्छा रखनेवाले के लिए इतना ही
जानने योग्य है की अन्वय (सृष्टी) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम जो
तत्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्व है।
॥ जय श्रीमन्न नारायण ।

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sallyraand9713

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