सही ग़लत के रेले में ख्वाहिशें यूं अकेले में इत-उत उग ही आई, दायरों के रुपहली सेंध पत्थरों में भी घर कर लहलहा धन्य कर आई, सच झूठ के फिर फेरे में रेत के टिब्बे धुआं आंधी में यादों से बना, बिगाड़ आये, मांगा-साझा-सुलझा-उलझा इन संध्या सुर्य के झमेलों में निशा ये आधी गुजार आये। सही ग़लत के रेले में ख्वाहिशें यूं अकेले में इत-उत उग ही आई, दायरों के रुपहली सेंध पत्थरों में भी घर कर लहलहा धन्य कर आई,