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नफरतों के बाज़ार में , मोहब्बत बेपनाह मिल

नफरतों के बाज़ार में , 
         मोहब्बत बेपनाह मिल रही है ।
मंजिल तो दिखती नहीं,
         हमें तो राह पे राह मिल रही है।
पता नहीं लोगों को हम,
    कैसे एक कवि लगने लगे ।
                   हमने तो उनकी बातें उन्ही को सुनाई ,
              और इसी में वाह-वाह मिल रही है।
नफरतों के बाज़ार में , 
         मोहब्बत बेपनाह मिल रही है ।
मंजिल तो दिखती नहीं,
         हमें तो राह पे राह मिल रही है।
पता नहीं लोगों को हम,
    कैसे एक कवि लगने लगे ।
                   हमने तो उनकी बातें उन्ही को सुनाई ,
              और इसी में वाह-वाह मिल रही है।