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सुबह हो चुकी थी..... सामने की सड़क कोहरे से भरी थी

सुबह हो चुकी थी.....
सामने की सड़क कोहरे से भरी थी....
मैंने सोचा इन कदमों को थोड़ा टहला के आता हूं,
अपने इस बुझे बुझे से मन को थोड़ा बहला के आता हूं....
सो निकल पड़ा कुछ मोटे मोटे गर्म कपड़े पहन कर...
थोड़ी- बाडी ठंड अपने इन कानों  पर सहन कर...
चलने लगा तभी देखा सड़क किनारे खेत पर कोई मुझसे पहले से जाग रहा था....
पतली सी कमीज में उसका शरीर ठंड से कांप रहा था....
मैंने बरबस  पूछ ही लिया तुम्हें ठंड नहीं लगती क्या?
वो बोल पड़ा लगती तो है... लेकिन पेट भरने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा..
ठंड ही सही मगर इसे  सहन करना ही पड़ेगा....
अपनी साल भर की मेहनत यूं खुले आसमान के नीचे कैसे छोड़ दू?......
बच्चे मेरे पढ़ना चाहते हैं उनका ये सपना मैं कैसे तोड़ दूं?.....
मैं इस फसल को अकेला छोड़ दूंगा तो इसे नीलगाय खा जाएगी....
घर में मेरी एक बीमार मां भी है फिर उसकी दवाई कैसे आएगी?.....
मैंने बोला बिना कंबल के पूरी रात ठंड में कैसे काट लेते हो?...
इतनी मेहनत से पैदा किया अन्न सबको कैसे बांट देते हो?....
वो बोला खुद भूखे रहकर यह अन्न बेचना ही पड़ेगा....
घर में एक बहन भी है जिसकी शादी में दहेज भेजना ही पड़ेगा...
मैंने कहा अच्छा ये बात है... 
कम से कम एक कंबल तो खरीद लेते इतनी ठंडी रात है....
वो बोला बेशक एक कंबल मैं खरीद लाता....
मगर फिर अपने बच्चों की फीस कहां से भर पाता?....
मैं अब और आगे कुछ नहीं बोल पाया उसकी मजबूरी के पुलिंदे का वजन  सवालों से नहीं तौल पाया....

उसकी जिम्मेदारियों में लिपटी मजबूरी बेहद कड़क थी...
अब मेरे सामने वहीं कोहरे से ढकी सड़क थी.....
         
                                  —शशांक पटेल सामने की सड़क कोहरे से भरी थी.....
सुबह हो चुकी थी.....
सामने की सड़क कोहरे से भरी थी....
मैंने सोचा इन कदमों को थोड़ा टहला के आता हूं,
अपने इस बुझे बुझे से मन को थोड़ा बहला के आता हूं....
सो निकल पड़ा कुछ मोटे मोटे गर्म कपड़े पहन कर...
थोड़ी- बाडी ठंड अपने इन कानों  पर सहन कर...
चलने लगा तभी देखा सड़क किनारे खेत पर कोई मुझसे पहले से जाग रहा था....
पतली सी कमीज में उसका शरीर ठंड से कांप रहा था....
मैंने बरबस  पूछ ही लिया तुम्हें ठंड नहीं लगती क्या?
वो बोल पड़ा लगती तो है... लेकिन पेट भरने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा..
ठंड ही सही मगर इसे  सहन करना ही पड़ेगा....
अपनी साल भर की मेहनत यूं खुले आसमान के नीचे कैसे छोड़ दू?......
बच्चे मेरे पढ़ना चाहते हैं उनका ये सपना मैं कैसे तोड़ दूं?.....
मैं इस फसल को अकेला छोड़ दूंगा तो इसे नीलगाय खा जाएगी....
घर में मेरी एक बीमार मां भी है फिर उसकी दवाई कैसे आएगी?.....
मैंने बोला बिना कंबल के पूरी रात ठंड में कैसे काट लेते हो?...
इतनी मेहनत से पैदा किया अन्न सबको कैसे बांट देते हो?....
वो बोला खुद भूखे रहकर यह अन्न बेचना ही पड़ेगा....
घर में एक बहन भी है जिसकी शादी में दहेज भेजना ही पड़ेगा...
मैंने कहा अच्छा ये बात है... 
कम से कम एक कंबल तो खरीद लेते इतनी ठंडी रात है....
वो बोला बेशक एक कंबल मैं खरीद लाता....
मगर फिर अपने बच्चों की फीस कहां से भर पाता?....
मैं अब और आगे कुछ नहीं बोल पाया उसकी मजबूरी के पुलिंदे का वजन  सवालों से नहीं तौल पाया....

उसकी जिम्मेदारियों में लिपटी मजबूरी बेहद कड़क थी...
अब मेरे सामने वहीं कोहरे से ढकी सड़क थी.....
         
                                  —शशांक पटेल सामने की सड़क कोहरे से भरी थी.....
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