सफरनामा जिंदगी का कुछ ऐसा रहा कैसे समेटें फकत कुछ लकीरों में जिन तकलीफों को बंद कमरे में हमने घुट-घुट कर सहा सबसे हंसकर मुखातिब हुए हम जानलेवा दर्द हमने कभी किसी से न कहा शराफत में किसी को जवाब भी देना न आया बस सोंचकर आंसू लिये बहा जरूरत महसस हुई एक दफा चीख कर रो लें हम पर उस वक्त घर के सभी लोग मौजूद थे वहां उलझनें चेहरे से साफ झलक रहीं थी टोका जब दोस्तों ने तो खीझकर बेसाख्ता मूंह से निकला बोलो अब दर्द-ओ-गम मिटाने जायें तो जायें कहां कदम हम बढा़ते गये गमों की बारिश से खुद को नहलाते गये कभी तो पहुंचेंगे कदम हमारी मंजिल है जहां बेसाख्ता-सहसा/एकाएक बेदम शायर आयुष कुमार गौतम की कलम से सफरनामा जिंदगी का कुछ ऐसा रहा