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जगत अलबेला रे जगत अलबेला         ग़ज़ब का तम

     जगत अलबेला रे जगत अलबेला

        ग़ज़ब का तमाशा ग़ज़ब का खेला          


जुबान सबकी सच्ची बोली है झूठी

कैसे पालता कोइ ये  नीयत अनूठी 

पोशाक  साफ  सुथरा, मन  है मैला

   जगत अलबेला रे जगत अलबेला......


स्वार्थ से स्वांग सजाए सकल जन

नेत्र को नज़र ना आए कोई परिजन

पाई पाई के लिए भाई भाई अकेला

जगत अलबेला रे जगत अलबेला.....


इंसान टिका रहे, ईमान नहीं टिकता 

मोल सही मिले तो यहां सब बिकता

बोलो कब? जब लगे वोट का मेला

   जगत अलबेला रे जगत अलबेला .........


छोड़कर सिरत आज सूरत देखते हैं

मां-बाप से परे मंदिर में मूरत देखते हैं 

गैरों से नाते नये-नये अपनों में झमेला

जगत अलबेला रे जगत अलबेला .........

©Harlal Mahato
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