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छलकते नेत्र अंबुद के, हिय अन्तस भिगोते है। पखारें

छलकते नेत्र अंबुद के,
हिय अन्तस भिगोते है।
पखारें भाव भीतर से,
व्यथा के पल संजोते है।

कलश दृग से जो बहती हैं
वेदना की वो सरिता है ।
प्रक्षालित कर हृदय मेरा
कलुषता को मिटाती है ॥ छलकते नेत्र अंबुद के,
हिय अन्तस भिगोते है।
पखारें भाव भीतर से,
व्यथा के पल संजोते है ।

भिगाती जो ये बूंदे हैं,
हृदय की पीर मिटती है,
समाहित कर सकल संताप,
छलकते नेत्र अंबुद के,
हिय अन्तस भिगोते है।
पखारें भाव भीतर से,
व्यथा के पल संजोते है।

कलश दृग से जो बहती हैं
वेदना की वो सरिता है ।
प्रक्षालित कर हृदय मेरा
कलुषता को मिटाती है ॥ छलकते नेत्र अंबुद के,
हिय अन्तस भिगोते है।
पखारें भाव भीतर से,
व्यथा के पल संजोते है ।

भिगाती जो ये बूंदे हैं,
हृदय की पीर मिटती है,
समाहित कर सकल संताप,