ग़ज़ल **** खाई हैं इतनी ठोकरें राहे हयात में*। फिर भी कमी न आई कभी ख़्वाहिशात* में। * निकलीं हज़ार ख़्वाहिशें दिल की मिरे मगर। अब जीना आ गया है मुझे मुश्किलात* में।। * तुम हो जफ़ा सरिश्त* तो मैं हूँ वफ़ा परस्त*। दोनों का है जवाब कहीं कायनात* में।। * उनकी निगाहे कह्र* का कल तक जो था हदफ़*। क्यों है वो आज दाइरहे इल्तिफ़ात* में।। * "ऋषिका" आ गया हमें जीने का अब हुनर। मिलता है इक सुकून सा सोज़े हयात* में।। * ©rishika khushi राहे हयात*ज़िन्दगी की राह, मुश्किलात * मुसीबतें, ख़्वाहिशात*इच्छाएँ, सरिश्त*मिज़ाज, वफ़ा परस्त*वफ़ा को पूजने वाला, कायनात*दुनिया, कुफ़्र*पाप(ईश्वर को नहीं मानना) निगाहे कह्र*ग़ुस्से वाली नज़र,