फ़लक पर उदासी है छाई हुई क़मर भी लहू में है डूबा हुआ हुसैन आ चुके करबला के क़रीब सफर में मोहर्रम ये कैसा हुआ उजड़ने के दिन हैं बिछड़ने के दिन अंधेरा दो आलम में छाया हुआ हवा चुप है गिरीया कुना है ज़मीं लहू आसमां में है बिखरा हुआ उसी याद में सब वतन जायेंगे ना वापस वतन जिसका आना हुआ हर इक आँख नम है तबीयत उदास ज़ब्हा सब नबी का घराना हुआ ख़मोशी फ़ज़ा में है फैली हुई जहां तक भी नज़रों का जाना हुआ सबब मेरी बक़शिश का शब्बीर हैं चला आएगा हुर ये कहता हुआ है मेहमां घरों में अली का पिसर आज़ा ख़ाना यूँ है सजाया हुआ दुआ इस से रिज़वान तू मांग ले नबी का नवासा है आया हुआ !! moharram