विजय पथ दौड़ रहा था सरपट सपाट सड़क पर विश्वास था कदमो पर और स्वयं पर किसी अवरोध की मुझे न खबर थी लक्ष्य को मैं साधते जा रहा था । थीं टिकी सबकी निगाहें मेरी दौड़ पर भाग्य मेरा शत्रुता निभा रहा था काटते चला मैं हर तूफानों को मेरा रथ यूँ ही दौड़ता जा रहा था सहसा मैं गिरा सपाट सड़क पर उठ न सका , मेरी शक्ति क्षीण होती गयी । संभला जब खड़े होने कि चेष्टा की विजय पथ मेरा धुंधला नज़र आ रहा था । यही खत्म नही कहानी मेरे दौड़ की अथकत दौड़ता चला जा रहा हूँ पाकर ही रहूँगा अपने विजय पथ को मैं इस जमीन पर विजय पताका गाड़ कर रहूँगा मैं अपने विजय पथ को पाकर रहूँगा । मैं अपने विजय पथ को पाकर रहूँगा । ---निशीथ एक कविता जो मैंने सन 2006 में खुद के लिए लिखी थी।