तुम इस अवनि के सार गर्भ, ये अवनि सार तुम्हारी है, ये व्याकुल तो तुम व्याकुल, किस कारण नाथ बिसारी है? क्यों विमुख हुए दिनों के नाथ, किस कारण धीरज धरा हुआ? क्या भूल गए है कांधों पर, तूणीर अभी तक भरा हुआ। जो काल दंत को काट सके, एक सर संधान करो, अब दुर्दिन है, अति विषम घड़ी, अब तो उत्थान करो, हे पार गगन के आवासी, अब तो कुछ ध्यान करो, अब दुर्दिन है, अति विषम घड़ी, अब तो उत्थान करो। पूरी रचना अनुशीर्षक में पढ़ें हे पार गगन के आवासी, अब तो कुछ ध्यान करो, अब दुर्दिन है, अति विषम घड़ी, अब तो उत्थान करो। अब प्रातःकाल घर घर आंगन, खगकुल के कलरव शब्द नहीं, घर घर में श्वान, गौ गलियों में, उनके आँचल में दुग्ध नहीं, अब मुरली में संगीत नहीं, अब कवि नहीं, रस छंद नहीं, अब गुरु नहीं, अब शिष्य नहीं, अब वीणा में स्पंद नहीं , अब आस तुम्हीं पर अटकी है, श्रद्धा का मान करो,