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सब के लिए ना-पसंदीदा उड़ती मक्खी कितनी आज़ादी से म

सब के लिए ना-पसंदीदा उड़ती मक्खी
कितनी आज़ादी से मेरे मुँह और मेरे हाथों पर बैठती है
और इस रोज़-मर्रा से आज़ाद है जिस में मैं क़ैद हूँ
मैं तो सुब्ह को घर भर की ख़ाक समेटती जाती हूँ
और मेरा चेहरा ख़ाक पहनता जाता है
दोपहर को धूप और चूल्हे की आग
ये दोनों मिल कर वार करती हैं
गर्दन पे छुरी और अँगारा आँखें
ये मेरा शाम का रोज़-मर्रा है
रात भर शौहर की ख़्वाहिश की मशक़्क़त
मेरी नींद है
मेरा अंदर तुम्हारा ज़हर
हर तीन महीने ब'अद निकाल फेंकता है
तुम बाप नहीं बन सके
मेरा भी जी नहीं करता कि तुम मेरे बच्चे के बाप बनो
मिरा बदन मेरी ख़्वाहिश का एहतिराम करता है
मैं अपने नीलो नील बदन से प्यार करती हूँ
मगर मुझे मक्खी जितनी आज़ादी भी तुम कहाँ दे सकोगे
तुम ने औरत को मक्खी बना कर बोतल में बंद करना सीखा है

©Jashvant
  कैद में रक्स  Ravina jpr. Anjali Sharma Arun Raina –Varsha Shukla Nandani patel