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विचलित से मन की आशा, क्या है इक घड़ी के सुकून की

विचलित से मन की आशा,
 क्या है इक घड़ी के सुकून की परिभाषा,
 जानते पहचानते ना जान ने का ढोंग, 
बस यही है हर रोज़ एक निराशा ।


रोज़ मीलों दौड़ने पे प्यासा, 
ना बुझे जो तृष्णा उसे बुझाने की आशा,
 फलक से ऊँचे अहम को ढोने का ढोंग, 
इस दर्द को बस सहते रहने की निराशा । 

अनजाने अनदेखे रिश्तों को निभाने की अभिलाषा,
 घर में बैठे अपनों को दुत्कारने की हताशा, 
सब तो अच्छा है ठीक है कहते रहने का ढोंग, 
मन के भीतर झाँक कर खीझने की निराशा ।

©Kushal
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