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* मजदूर * अपना गांव छोड़कर हम शहर बना रहे हैं हां ह

* मजदूर *
अपना गांव छोड़कर
हम शहर बना रहे हैं
हां हम मजदूर हैं साहब
ओढ़के आसमां की चादर 
फुटपाथों पे सो रहे हैं
पेट की भूख मिटाने को
हम खुद से ही लड़ रहे हैं
बारिश हो या धूप छांव 
दो टूक रोटी के लिए 
हम दर दर भटक रहे हैं
न पांव के छाले देखें 
न हाथों की दरारें
लिए बोझ सिर पे इतना
हम लड़खड़ा रहे हैं 
हां हम मजदूर हैं साहब
बस इसी की सजा काट रहे हैं #labourers
* मजदूर *
अपना गांव छोड़कर
हम शहर बना रहे हैं
हां हम मजदूर हैं साहब
ओढ़के आसमां की चादर 
फुटपाथों पे सो रहे हैं
पेट की भूख मिटाने को
हम खुद से ही लड़ रहे हैं
बारिश हो या धूप छांव 
दो टूक रोटी के लिए 
हम दर दर भटक रहे हैं
न पांव के छाले देखें 
न हाथों की दरारें
लिए बोझ सिर पे इतना
हम लड़खड़ा रहे हैं 
हां हम मजदूर हैं साहब
बस इसी की सजा काट रहे हैं #labourers