अंतर्द्वंद्व थोड़ी कल्पना थोड़ी हक़ीक़त (10₹) मेरा ताल्लुक पहाड़ की तलहटी पर बसे अत्यंत दुर्गम क्षेत्र के एक गाँव से रहा, सुख सुविधाओं के अभाव और थोड़ी सी ज़रुरत पर शहर का मुँह देखना आम बात थी। वहाँ तीन चार गाँव का मिलाकर एक स्कूल था जो मेरे गाँव से बहुत दूर था। मेरे माता पिता ने मुझे उस स्कूल में भेजने के बजाय मेरा दाखिला शहर में करवा दिया, हालाँकि मेरी दसवीं तक की शिक्षा उसी स्कूल में हुई 11वीं में विज्ञान विषय की अनुपलब्धता के कारण मुझे शहर के स्कूल जाना पड़ा। कोई पहचान का तो नहीं था, वैसे तो बहुत लोग थे पर ऐसा कोई नहीं जो मुझे अपने साथ रखने को तैयार हो। इसीलिए पापा को मजबूरी वश मुझे हॉस्टल में रखना पड़ा।छुट्टियों में अक्सर शहर से गाँव जाना होता था त्योहार या फिर गर्मियों की छुट्टी बहुत आनंद आता था वापस अपने घर जाकर। जब छुट्टियाँ ख़त्म होती और पापा मुझे वापस शहर छोड़ने आते तो मुझे याद है माँ हमेशा मुझे जाते वक्त ₹10 दिया करती थी। खर्चे के रुपए पापा या कभी माँ मुझे घर में ही दे दिया करते थे ,मगर वह ₹10 जिन पर मेरा अलग से अधिकार था वह माँ मुझे जाते वक्त दिया करती थी उन ₹10 की कीमत मेरे लिए सारे पैसे से अलग थी असल में मेरी फीस के या अन्य खर्चों के लिए दिए गए रुपए मुझे सोच समझकर खर्च करने होते थे। यूँ तो बाबा किसी ना किसी के हाथ शहर पैसे भिजवा ही देते थे मगर कभी-कभी देर हो जाती थी इसीलिए मैं उनको कंजूसी से खर्च किया करती । पर मेरे लिए माँ के दिए वह ₹10 ऐसे थे कि मानो इन पर मेरा पूरा अधिकार हो इन्हें में जैसे चाहे खर्च सकती थी। एक ज्योमेट्री बॉक्स था मेरे पास जिसमें मैं वो रुपए जमा कर दी जाती थी यह मेरे पास आपातकालीन परिस्थितियों से निपटने का ख़जाना था, ऐसा ख़जाना जो कभी खत्म नहीं होता...आज जब जिंदगी के कितने बरस बीत चुके हैं और खुश हूँ स्वयं के पैसों पर स्वयं की शर्तों पर जिंदगी जी कर तो वो ख़जाना मुझे अक्सर याद आता है उन 10 रुपयों की कीमत मेरी आज की कमाई से कई गुना ज्यादा है आज जब वापस मुड़कर देखती हूँ तो लगता है कि कहाँ गए वह ₹10 जिनको पाने के लिए मैं तरसती हूँ और मुझे खलती रहेगी उम्र भर उन ₹10 की कमी।