बचपन में सखी के गुड्डे के संग, अपनी गुड़िया का ब्याह रचाते थे। ढोल बजाते, मंडप सजाते, धूमधाम से दोस्तों की बारात बनाते थे। लगने लगा अब दो घर है गुड़िया के मेरे, जीवन हंसकर बिताएगी। कभी रहेगी मायके में आकर, कभी अपनी ससुराल को सजाएगी। हंसते-खेलते अपना सारा जीवन खुशियों से बीताएगी, कर दी विदाई। उसके जीवन की कहानी को हमने अपने जीवन की हकीकत बनाई। बचपन बीता, जवानी आई, ब्याह की रीति निभाकर, ससुराल को अाई। कुछ हुई कहा सुनी तो गुस्से में ससुराल छोड़, मायके में रहने को आई। कुछ दिन अच्छे से बिताये, फिर सबने हमको समझाना शुरू किया। ससुराल ही है अब तुम्हारा घर- संसार वहीं है तेरा आने वाला कल। मायका नहीं, अब तेरा घर है, ससुराल जाओ अपना संसार बनाओ। यहां कितने दिन होगा, तुम्हारा गुजारा, ये तो है बस मायका तुम्हारा। दुनिया की सारी रीति बताकर, अपनी मजबूरी सबने हमको समझाई। समझाकर मन को, निभाना है दस्तूर, लौट आये घर को होके मजबूर। बाद में समझ आया, सुकून यहीं है, यही घर है हमारा, इसे है स्वर्ग बनाना। खट्टी-मीठी, नोंक-झोंक के साथ खुशियों से है, अपना आशियाना सजाना। -"Ek Soch" #लौट_आये_घर_को_team_alfaz #new_challenge There is new challenge of poem/2 line/4 line in whatsapp group (link in bio) Today's Topic is *लौट आये घर को*