प्रकृति का संतुलन (अनुशीर्षक में पढ़ें) प्रकृति का संतुलन मैं हूँ प्रकृति, कभी थी हरी-भरी मैं, अब हूँ बंजर, तन्हा और उदास मानव हो गया है गैरजिम्मेदार, नहीं है उसे अपनी ग़लतियों का आभास पेड़ों को काटकर कर दिया है उसने सब प्रदुषित,