मिले थे दो राही अपनी मंजिल ढूँढने, उसे क्या पता था यह मुलाक़ात, उसकी आख़िरी मुलाक़ात होगी। शाम का समा था, साक्षी ढलता सूरज भी था, दूर से वो दबे पाँव आ रही थी, और मेरी धड़कने बढ़ती जा रही थी, जी भी गभराया सा की ये झलक, फिर कभी जिंदगी में देखने को मिलेगी या नहीं मिलेगी, पास आई खड़ी रही मेरे सामने, नजरो से नजरे मिलाई, और बह गया अश्रु का दरिया, एक दूसरे के अश्रु पोंछते हम, जैसे एक दूसरे को दिलासा देते, अखियां चुराती वह मुझसे, और पलके झुकाती मुझे देखके, थाम के हाथ उसका थोड़ी देर संभलता मैं उसे, थोड़ी देर ताकतें रहे हम एक दूसरे को, और सिमट गए एक दूसरे के आगोश में, कुछ गुफ़्तगू ना हुए, कोई लफ्ज़ भी ना निकाला, बस सिमटे ही रहे एक दूसरे की आगोश में, जैसे वह मेरी बाहों से अलग हुई, लगा जैसे मेरी रूह मुझ से अलग हुई, और यह हमारी जिंदगी की आख़िरी मुलाक़ात पूरी हुई। उसने जाते समय पीछे मुड़कर भी नहीं देखा, क्योंकि उसे पता था कि वह अगर मुंडेगी, तो वह जा नहीं पाएगी, और मैं उसे जाने ही नहीं दूँगा। -Nitesh Prajapati ♥️ Challenge-803 #collabwithकोराकाग़ज़ ♥️ इस पोस्ट को हाईलाइट करना न भूलें :) ♥️ रचना लिखने के बाद इस पोस्ट पर Done काॅमेंट करें। ♥️ अन्य नियम एवं निर्देशों के लिए पिन पोस्ट 📌 पढ़ें।